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तवा॒यं सोम॒स्त्वमेह्य॒र्वाङ् श॑श्वत्त॒मं सु॒मना॑ अ॒स्य पा॑हि। अ॒स्मिन्य॒ज्ञे ब॒र्हिष्या नि॒षद्या॑ दधि॒ष्वेमं ज॒ठर॒ इन्दु॑मिन्द्र॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tavāyaṁ somas tvam ehy arvāṅ chaśvattamaṁ sumanā asya pāhi | asmin yajñe barhiṣy ā niṣadyā dadhiṣvemaṁ jaṭhara indum indra ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तव॑। अ॒यम्। सोमः॑। त्वम्। आ। इ॒हि॒। अ॒र्वाङ्। श॒श्व॒त्ऽत॒मम्। सु॒ऽमनाः॑। अ॒स्य। पा॒हि॒। अ॒स्मिन्। य॒ज्ञे। ब॒र्हिषि। आ। नि॒ऽसद्य॑। द॒धि॒ष्व। इ॒मम्। ज॒ठरे॑। इन्दु॑म्। इ॒न्द्र॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:35» मन्त्र:6 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:18» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के इच्छा करनेवाले ! (तव) आपका जो (अयम्) यह (अर्वाङ्) अधोभाग में विद्यमान (सोमः) ऐश्वर्य्य का संयोग उस (शश्वत्तमम्) अत्यन्त अनादि काल से सिद्ध ऐश्वर्य्य संयोग को (त्वम्) आप (आ) (इहि) प्राप्त हूजिये (अस्मिन्) इस (बर्हिषि) अतिउत्तम (यज्ञे) शिल्प विद्या से होने योग्य व्यवहार में (निषद्य) निरन्तर स्थिर होकर (सुमनाः) प्रसन्नचित्त हुए (इमम्) इसकी (पाहि) रक्षा करो और (अस्य) इस ज्ञान की उत्तेजना से प्राप्त (इन्दुम्) गीले पदार्थ को (जठरे) उदर में (आ) सब प्रकार (दधिष्व) धारण कीजिये ॥६॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! इस सबसे उत्तम शिल्पविद्या से साध्य व्यवहार में चतुर होके अनादि काल से उत्पन्न और प्राचीन विद्वानों से प्राप्त ऐश्वर्य्य को सिद्ध कर इस संसार की रक्षा के लिये स्थित करके योग्य आहार और विहार से आनन्द भोगो ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र ! तव योऽयमर्वाङ् सोमस्तं शश्वत्तमं त्वमेहि। अस्मिन्बर्हिषि यज्ञे निषद्य सुमनाः सन्निमं पाहि। अस्य सकाशात् प्राप्तमिन्दुं जठर आ दधिष्व ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तव) (अयम्) (सोमः) ऐश्वर्य्ययोगः (त्वम्) (आ) (इहि) प्राप्नुहि (अर्वाङ्) अधस्ताद्वर्त्तमानः (शश्वत्तमम्) अतिशयेनाऽनादिभूतम् (सुमनाः) प्रसन्नचित्तः (अस्य) बोधस्य (पाहि) (अस्मिन्) (यज्ञे) शिल्पसम्पाद्ये व्यवहारे (बर्हिषि) अत्युत्तमे (आ) समन्तात् (निषद्य) नितरां स्थित्वा। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (दधिष्व) धेहि (इमम्) (जठरे) उदरे (इन्दुम्) सार्द्रपदार्थम् (इन्द्र) परमैश्वर्य्यमिच्छुक ॥६॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या अस्मिन्त्सर्वोत्तमे शिल्पसाध्ये व्यवहारे निपुणा भूत्वाऽनादिभूतं पूर्वैर्विद्वद्भिः प्राप्तमैश्वर्य्यं विधाय सर्वस्यास्य जगतो रक्षणे निधाय युक्ताहारविहारेणाऽऽनन्दं भुङ्क्त ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! सर्वात उत्तम शिल्पविद्येने साध्य करणाऱ्या व्यवहारात निपुण बनून अनादि काळापासून उत्पन्न झालेले व प्राचीन विद्वानांकडून प्राप्त झालेले ऐश्वर्य घेऊन या जगाच्या रक्षणासाठी ते स्थित ठेवा व योग्य आहार-विहाराने आनंद भोगा. ॥ ६ ॥